धरती पर नीला समंदर ऊपर नील गगन है
सच्चे साथी की खोज में
धुँआ - धुँआ सा मन है।
इठलाता पवन, झूमे तरु
रत्नाकर हो रहा मगन है
बैठे रहें प्रिय के संग
यही चाहता मन है।
दृश्यों की मनमोहक झाँकी
आत्ममुग्ध नयन है
पलकों में सबको समा लूँ
यही चाहता मन है।
जितना गहरा उतना विहंगम
उतना ही निर्मल है
संग लहरों के विचरण करूँ
यही चाहता मन है।
अठखेलियां कर रहा सागर
गगन हो रहा मगन है
तारों भरी निशा में इन्हें निहारूँ
यही चाहता मन है।
पारदर्शी है रत्नाकर
सुखकर उसका घर है
कोने -कोने का दर्शन कर लूँ
यही चाहता मन है ।
हरियाली मन मोह रही है
सागर कर रहा गर्जन
सुध-बुध खुद का बिसरा दूँ
यही चाहता है मन।
जलधि के सानिध्य में
चहक रहा वन- उपवन
ऐसे चहकूँ प्रिय संग
यही चाहता मन है।
बहुत दिनों के बाद ब्लॉग में वापस आ रही हूँ...