Wednesday, 31 August 2011

एक पहिया


आज अपनी गलतियों से
शर्मिंदा हूँ
गलत नही हूँ
सही होने से शर्मिदा हूँ
यादों को भूलाने में
दर्द बहुत होता है
ज़ख्मों में मरहम
लगाने में जैसा होता है
दिल भारी है
मन भारी है
यादों के किसी को
मिटाने की जबसे
मन ही मन तैयारी है
मरे हुये बच्चे को कब तक?
सीने से लगाये हुये
रहेगी बंदरिया ?
सबको पता है
गाडी तभी तक चलती है
जब तक कार्य करता है
गाडी का सभी पहिया
तभी मुसाफिर अपने
मंज़िल तक पहुँच पाता है
एक पहिया लाख कोशिश करे
अकेले कुछ नही कर पाता है

6 comments:

  1. सटीक लिखा है ...सारे पहिये सही हों तभी संतुलन बना रहता है ..सार्थक रचना

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  2. कविता के भाव बहुत सुन्दर है

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  3. धन्यवाद अमरेन्द्र जी

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  4. सचमुच यादों को भूलाना आसान नही होता।
    बहुत अच्छी अभिव्यक्ति।

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