Tuesday 2 August 2011

मेरी ख्वाहिश


मेरे दिल में तुम्हारे लिये प्यार था
तुमने उसे व्यापार समझा
मैंने तुम्हारी प्रशंसा की
तुमने उपहास समझा
सोचा था-खुशियों को साझा करने से
अपनेपन का एहसास बढ जायेगा
गम साझा करेंगे तो ये आधा हो जायेगा
पर पता नहीं कैसे ? कब ?क्यों ?
तुमने मकडी के जाले बुन डाले
मेरे स्नेह,अपनापन और आत्मीयता के
सारे अर्थ बदल डाले
दिल के दुःखमय उदगारों को
भग्न ह्रदय से कैसे मैं कहूँ?
सहा नहीं जाता जो गम
उसे कैसे मैं सहूँ।


मेरे दुःख को तुमने नही
मैने ही बडा कर दिया
अपनेपन की चाहत ने
आज मुझे इस मोड पर
 खडा कर दिया
 जहाँ एक तरफ तुम हो
दूसरी तरफ है
अनजानी सी डगर
सधे कदमों से मैं उस
पथ पर कदम बढा रही हूँ मगर
मुझे पता है जिस दिन
तुन नैराश्य औ असुरक्षा के
 घेरे  से बाहर आओगे
अपने साथ मुझे खडा न पाओगे
उसी क्षण से मुझे पाने के लिये
बेताव हो जाओगे।

तुम्हारे पास होगा मेरे लिये केवल
अपनापन औ प्यार पर
तब तक इतनी देर हो चुकी होगी
कि टुट जायेगी मेरी उम्मीद की डोर
और मैं चली जाऊँगी उस ओर
जहाँ से मेरा लौटना नामुमकिन होगा
और तुम्हारा मेरे पास आना होगा असंभव।

हो सके तो उस दिन
अपने द्वारा बुने मकडी के जाले
को साफ कर देना
दिल की गहराईयों से मुझे
माफ कर देना
जाते-जाते एक बात बताते जाऊँ
ख्वाहिश है मेरी
कभी किसी मोड पर गर
मैं तुमसे टकराऊँ
तो तुम्हे हँसते खिलखिलाते ही पाऊँ।

तुमने मेरे लिये क्या सोचा
ये गम नही है
गम सिर्फ इस बात का है
कि मेरे कारण तुमने अव्यक्त
दु;ख सहे
समझ गई मैं सारी बातें
बिना तुम्हारे कहे
वादा करती हूँ तुमसे
अब वो बात नही दुहराऊँगी
खुश रहो तुम हमेशा
इसीलिये तुम्हारी दुनिया से
दूर चली जाऊँगी ।

तुम्हारे साथ बिताया हर पल
मेरे लिये बहुत अच्छा था
पर विश्वास करो
बनावटी नही था कही भी
हरेक व्यवहार मेरा सच्चा था ।

ज़िदगी के झंझावातों से
अपनों के दिये आघातों से
होंठों की हँसी और चंचलता
कुछ देर के लिये खो सकती है पर
किसी की मूलप्रकृति नही सो सकती
अपना स्वभाव बदलकर मैं जी नही सकती
चुपचाप रहकर गम के आँसू पी नही सकती ।

कभी अच्छा कभी बुरा
ये समय का फेरा है
जैसी जिसकी सोच होती
वैसा उसका घेरा है ।

सब को वही-वही करना है
जो प्रकृति करवाती आई है
सुख-दःख,सही-गलत
सभी कर्मों का करती वो भरपाई है
आज रात है अगर तो
कल सबेरा भी होगा
डगर भले अंजान हो पर
कोई न कोई सहारा होगा
समझौता नही कर सकती मैं
मेरा चरित्र मेरे साँसों की कुंजी है
मोल नही है जिसका
वो अनमोल पुंजी है ।

गर मिल जाओ उस राह पे कभी तो
मुझे देखकर आह न भरना
अपनापन औ स्नेह देने की
मुझको कोई चाह न करना
जानती हूँ तुम्हे ज़िद मुझे
मनाने की होगी
पर समय फिर कुचक्र रचेगा
और मुझे जाने की जल्दी होगी ।

4 comments:

  1. well said.....nd last 4 lines to jaan h poem ki,...

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  2. शब्द जैसे ढ़ल गये हों खुद बखुद, इस तरह कविता रची है आपने।

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  3. पहली बार पढ़ रहा हूँ आपको और भविष्य में भी पढना चाहूँगा सो आपका फालोवर बन रहा हूँ ! शुभकामनायें

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  4. मनोबल बढाने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद
    संजय जी।

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