Monday, 10 November 2014

प्रतिरोध



द्रोपदी-अगर तुमने शुरु से ही
अन्याय का प्रतिरोध किया होता
तो जो-जो तुम्हारे साथ हुआ
वो न हुआ होता
नारी थीं तुम ममतामयी,स्नेहमयी औ-
त्यागमयी,कोई वस्तु नही
जो पाँच भागों में बाँट दी गयीं
क्यों-क्यों-क्यों ?
तुमने ऐसा क्यों सहा ?
भले ही गलत था,दुर्योधन पर-
ऐसा क्यों कहा कि "अंधे का बेटा अंधा ही होता है"
जो जैसा बोता है वो वैसा ही काटता है
प्रकृति के न्याय में ऐसा ही होता है
दुर्योधन अगर दोषी है तो दोष तुंम्हारा भी कम नही
बडों का अपमान करना ये हमारा धर्म नही
हाँ-दोषी को उनकी गलतियों का आईना दिखाना भी जरुरी है
पर बुरे के साथ बुरा बन जाना ये कैसी मजबूरी है
कौरव तो पर्याय था झूठ और फरेब का
पर क्या ? पाँडवों के हमेशा उचित व्यवहार थे
किसी के उकसाने पर जो मर्यादा को भूल जाता है
निर्जीव वस्तुओं के समान पत्नि की जुए में
बाजी लगाता है
माँ के वचन की आड ले जो
नारी की अस्मिता पर प्रश्न-चिन्ह लगाता है
वो क्या ? कौरव से अलग पंक्ति में खडा रह पाता है?
वो,तो कौरव से भी बडा अपराधी है
जो उसे अपराध करने के नये-नये तरीके
आजमाने का नुस्खा देता हैअपनी विन्रमता की आड ले जो
अपराधों को बढावा देता है
अन्याय करना और अन्याय सहना दोनों
ही अपराध है
कौरव अगर अपराधी है
तो पांडव भी दूध का धुला नही है
और सबसे बडी बात तो यह है कि
असली बात सबके समझ में आती है
कि पाँच पतियों की टुकडी भी
द्रोपदी को नही बचा पाती है
उसकी लाज बची उसकी
खुद की भक्ति और शक्ति से
काश-तुमने शुरु में ही लिया होता
इसका सहारा तो इतनी भरी सभा में
न रहती यूँ लाचार और बेसहारा।  
            मेरी बहुत पुरानी रचना है ,शायद आपको अच्छी लगे। धन्यवाद।  


Thursday, 23 October 2014

सुन बाती का संकल्प

कहा बाती ने दीये से 
साथी! मत हो तुम उदास 
जब तक जान रहेगी मुझमें 
रहूँगी तेरे साथ........

सुन बाती का संकल्प 
तम मुस्कुराया 
पलक झपकते उजियारे ने 
अपना पर फैलाया,,,,,
                               दिवाली के दीये की भाँति आप भी हमेशा खुशियों 
का उजाला फैलायें ताकि तम - रुपी दुःख-दर्द आप से दूर रहे।  दीप -पर्व  के इस अवसर पर आपको बहुत -बहुत  शुभकामनाएँ। 

Monday, 13 October 2014

तब.… बता ओ

दौलत की खनक 
चेहरे की चमक 
शरीर का ताव 
दिल बेताब 
जब हो जाएगा 
निढ़ाल,,,,,,
 तब.……  बता ओ,,,,,,
स्वछन्द परिंदे 
कैसे,,,,, गीत ख़ुशी के गाओगे ?
अभिमान  के बुनियाद पे हो खड़े तुम 


चैन कहाँ से पाओगे ? 
अपने आसपास की झूठी महफिल को 
कैसे तुम सजाओगे ?
छिनोगे तो छिन  जायेगा 
छोटी सी इक गलती तुझको 
उम्र भर तड़पाएगी .... 
सत्य को अपनाओगे तो 
खुद को तुम पाओगे 
चैन तुम्हें चहुँ ओर मिलेगा 
जहाँ-जहाँ तुम जाओगे 
झूठा अहम् और मिथ्याभिमान 
के कवच को तोड़ तुम भागो 
समय के रहते समय को पकड़ो 
ओ नादान  परिंदो जागो ,,,,

Sunday, 7 September 2014

औरों को झुकाना चाहे पर

औरों को झुकाना चाहे पर 
खुद झुकना मंजूर नहीं 
खोखले दावे हैं  अहम् के 
ये कतई ग़ुरूर नहीं,,,,,,,

Monday, 18 August 2014

क्यों ?

जिन  राहों को छोड़ दिया है 
उन राहों पे जाना क्यों ?

 सूखा  बादल ,प्यासी धरती 
सूरज को मनाना क्यों ?

जिन आँखों से अश्क न निकले 
उन आँखों को रुलाना क्यों ?

समझ से भरे नासमझों को 
बेवजह समझाना क्यों ?

दौलत से जो स्नेह  को तौले 
उन्हें स्नेह  के बोल सिखाना क्यों ? 

चाँद -तारों से भरी  निशा को 
सन्नाटे  से मिलवाना क्यों ?

                                                    
सभी समय की बर्बादी है। 




Monday, 28 July 2014

मैं जननी

शिमला तेरी वादियों में 
मन को मोड़ आई हूँ 
अपने ज़िगर के टुकड़े को 
तेरे सानिध्य में छोड़ आई हूँ.…

उचित-अनुचित ,अच्छे-बुरे का 

देना अब तुम ज्ञान 
मैं जननी तूँ जगदम्बा 
रखना उसका ध्यान........

Tuesday, 20 May 2014

ऐ दिल.… तूँ चल

ईंट पत्थर जोड़ रहे हैं 
धड़कते दिलों को तोड़ रहे हैं 
सुन पा रहे नहीं 
अपनों की चित्कार 
ऐसे अपनों को
 अपना समझने की 
हसरत है बेकार ---

झूठा साक्षी बना है सत्य का 

निशा उम्मीद की रश्मियाँ बो रही है 
रावण -कंसों की दुनियाँ में 
मानवीय संवेदनाएं खो रही है ----

महसुस नहीं हो पा रहे जहाँ 

माँ-जाई को माँ-जाई के 
कातरता भरे सिसकते अरमान 
ऐसी निर्ममता तो है केवल 
एक कसाई की पहचान ----

ऐसे कसाई के लिए रोना क्यों ?
उम्मीद की किरणें बोना क्यों ?

ऐ दिल.… तूँ चल 

तूँ अकेला हीं चल 
भीड़ में खोने से अच्छा है 
निर्जन में खोना
 बेफिक्री की दुनियाँ में 
चैन से सोना---- 

Sunday, 6 April 2014

…तो…....






बादल बरसे ना 
धरती  तरसे ना 
बिजली चमके ना..... तो…… 
                                कोई मतलब नहीं। 
मन बहके ना 
दिल हर्षे ना 
आँखें छलके ना …तो….... 
                              कोई मतलब नहीं। 

उपवन महके ना 
कोयल कुहूके ना 
चिड़ियाँ चहके ना.…तो….... 
                              कोई मतलब नहीं। 
सब्जी में नमक ज्यादा हो 
रिश्तों में मर्यादा ना हो 
शतरंज में प्यादा ना हो.…तो…… 
                                  कोई मतलब नहीं। 

Thursday, 20 March 2014

माँ----बनकर देखो -

हर साँस से  सपने 
उर से स्नेह ---
 प्रकृति के कण -कण से 
सुखों की  बरसात हो रही थी 
उपलब्धि बड़ी नहीं--छोटी सी (?) थी ---
एक माँ अपने बच्चे को ढूध पिला रही थी-- 

नकली आवरण 
नकली शानों-शौकत 
नकली खुशियों को फेंको 
दुनियाँ तेरी बदल जायेगी 
माँ----बनकर देखो ----



Friday, 21 February 2014

बोलो बसंत

उजड़े को सँवारते हो 
नाउम्मीदी से भरे दिलों में 
उम्मीद की  किरण जगाते हो.… इसीलिए,,,
बसंत---   तुम..... ऋतुराज कहलाते हो..... 

यहाँ-वहाँ  सारे जहाँ में 
छोटे-बड़े का भेद किये बिना 
गुलशन को महकाते हो..... इसीलिए ,,,,
बसंत ---तुम.… ऋतुराज कहलाते हो.… 

माँ शारदे का प्रसाद 
होली का अल्हड आह्लाद 
झोली में लेकर आते हो..... इसीलिये,,,,
बसंत ---तुम.…ऋतुराज कहलाते हो.…

गाँव शहर हर गली की  बिटिया 
निर्भय जीवन जी पाये 
कोई भी दुष्कर्मी उसके 
अस्मत / भावनाओं से खेल न पाये 
फिज़ा में ये रंग कब-तक बिखराओगे 
उसी बसंत का इन्तजार है 
बोलो   बसंत ! कब आओगे ?

Tuesday, 21 January 2014

ख़ामोशी




आलम था ख़ामोशी का 
दिल दहल गया.……                    इतनी मिली खामोशियाँ कि 
मन बहल गया..... 

ख़ामोशी की ख़ामोशी से 

बात हुई --- बड़ी लम्बी सी.--- 
छोटी मुलाकात हुई ----   


                                                               


















निशा की  निस्तब्धता 
नभ की ख़ामोशी 
चाँद तारों की बस्ती में 
  ग़ज़ब की खुमारी है. 



सर्द मौसम की  आहट 
ख़ामोशी की  सुगबुगाहट 
ताकत को तौलती है 
दिल भारी और लब बंद है 
सिर्फ आँखें हीं बोलती है.