Tuesday, 28 May 2013

पर ...आखिर में

कहते हैं कि सुबह का भूला शाम को 
घर लौट ही आता है .....
                                                                       
लौट के जब घर आना  ही है 
तो फिर ? वो ....घर से बाहर 
जाता ही क्यों है ?

बार -बार ये सवाल मेरे....
 दिमाग से टकराता है .....




शायद उसकी आँखों में  मगरमच्छी नमी होगी  या…. फिर .....
उसके घर में जगह की कमी होगी ....इसीलिए 
 दिनभर समय बिताकर ...शाम को लौट आता है 
घरवालों की जली -कटी सुनकर रात में ....
चुपचाप सो जाता है ...

जब-तक उसकी  जान में जान होती है 
ये क्रम अनवरत चलता  रहता है 
जिस दिन से उसकी जान बेजान होती है 

वो भूलना बंद कर देता है .....

उसकी हार या फिर खुद की  जीत पर 
घर का हर कोना गुनगुनाये 
दाल नहीं गली बराबर 
लौट के बुद्धू घर को आये ......

कैसी जीत या कैसी ये हार है ?
मेरी समझ में  ये हमेशा 
घाटे का व्यापार है .....

बाहर जाने के लिए 
दिमाग से सौ तरकीब भिड़ाते हैं ..

पर ...आखिर में .. बुद्धू ही कहलाते हैं .....






Wednesday, 15 May 2013

एक दूसरे की परछाईं

ज्यों हीं शाखों   पर बंद कलियों ने 
अपनी आँखें खोली ...... 
शहद भरे मीठे शब्दों में 
कोयल कुहू -कुहू बोली ......

झूम उठी है  निशा सुहानी 
आया नया सबेरा 
चलो सखी अब आम्र कुञ्ज में 
डाले अपना डेरा .....

दो पथिक मिले 
एक राह चले 
दो सपनों ने ली थी अंगडाई ...
आज उन्हीं को साथ लिए                         

ये शाम मस्तानी आई .......

शाखें सजती जैसे गुलमोहर की 
सुर्ख फूलों की लाली से 
सज़ा रहे उन पथिकों का जीवन भी 
 एक दूसरे  की परछाईं से ......

खुशियाँ बाँटों 
खुशियाँ पाओ 
उलझन को 
मिल-जुल  सुलझाओ ......

बीत गए कुछ समय पुराने 
आनेवाले भी बीत जायेंगे 
इन राहों पर चलते-चलते 
 मंज़िल पर  छा जायेंगे .....


Monday, 13 May 2013

मेरा आईना

मुझको मेरा आईना दिखाकर 
तुमने अच्छा काम किया 
भूल गई थी जिसको मैं                                              
उसको फिर पहचान लिया .....