मेरी बिखरी-बिखरी सी यादें
मुझे छोडकर तुम
कहीं और चली जाओ
मेरे लौहखंड से बने
इरादों को यूँ कमजोर न बनाओ
दुनियाँ से जाने के पहले
बहुत कार्य है निबटाने को
क्या मैं हीं हूँ इकलौती ?
अपना अस्तित्व मिटाने को ?
जब कोई मेरी परवाह नहीं करता ?
तो ? मैं क्यों करुँ किसी की परवाह ?
क्यों निकालूँ किसी के लिये
दिल से कोई आह ?
अच्छा होगा
बेदर्दों से दूर रहकर
मैं अकेली ही चलती चली जाऊँ
अपनी मर्जी से रोऊँ या गाऊँ
तुमको तो पता है ?
आत्मा तक पहुँचने का
दिल है एकमात्र रास्ता
पर ? जो दिल से नहीं जुडा है
उसका मुझसे क्या वास्ता ?
अच्छा यही होगा
तुम मुझे उसकी याद न दिलाओ
जैसे उसने भूला दिया मुझे
वैसे मुझसे उसकी यादें भी ले जाओ ।
अच्छा होगा बे
ReplyDeleteलगता है आप इस लाईन में कुछ और भी कहना चाह रही हैं.
वर्ना 'बे' का मतलब समझ नहीं आया.
आपकी प्रस्तुति अच्छी आक्रोशपूर्ण लगती है.
अच्छा प्रयास है
ReplyDeleteसुंदर
अंतिम पंक्ति कुछ अधूरेपन का अहसास देती है. सुन्दर प्रयास..शुभकामनाएं !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और भावपूर्ण कविता ....
ReplyDeletethanks to all n now my poem is complete .
ReplyDeleteपूरी कविता पढ़ कर बहुत अच्छी लगी. भावों की बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति..
ReplyDeleteवाह! अब आनंद आया आपकी सुन्दर भावपूर्ण
ReplyDeleteप्रस्तुति पढकर.
बहुत बहुत शुक्रिया निशा जी पूरी कविता पढवाने के
लिए और मेरे ब्लॉग पर भी आपके आने के लिए.
आपने सीता जन्म के बारे में ठीक ही कहा है
कि पौराणिक कहानी अनुसार ऋषि मुनियों
ने कर के रूप में अपना रक्त रावण और दानवों
को दिया था, जिसे घड़े में भरकर जनकपुरी के
पास की भूमि में गाड दिया गया था.जिस से
कालांतर में 'सीता'जी प्रकटी.
आध्यात्मिक चिंतन के अनुसार इसको ऐसे माना
जा सकता है कि रावण अहंकार का प्रतीक है,
दानव कुविचारों और कुभावों के, जिस कारण
ऋषि मुनियों को खुद अपने से ही संघर्ष और
तप करना पड़ता था ,'प्रेम' और 'भक्ति' के
अन्वेषण के लिए.क्यूंकि शुष्क ज्ञान मार्ग में अहंकार
और कुविचार बाधक होते थे.यह संघर्ष और तप ही रक्त
का द्योतक है जो अन्वेषण के 'कालपात्र' के रूप
में घड़े में डालकर भूमि में गाड दिया गया.
यह 'कालपात्र' जब निकला तब ऋषि मुनियों
का 'प्रेम' और 'भक्ति' पर किया हुआ अन्वेषण
ही सीता रूप में प्रकट माना जा सकता है.
thanks kailash ji
ReplyDeletethanku very much for reading my poem n to satisfied my curiosity.thanks again.
ReplyDeleteभावनाओं का बहुत सुंदर चित्रण . ...बधाई...
ReplyDeleteएक टूटे हुए दिल से निकली रचना, टूटना अच्छी बात नहीं है | धाराप्रवाह लेखन के लिए बधाई
ReplyDeleteसुझाव के लिये धन्यवाद सुनील जी पर मेरा
ReplyDeleteमानना है कि दिल को ठेस पहूँचती है तभी तो
कविता बनती है।
बेदर्दों से दूर रहकर
ReplyDeleteमैं अकेली ही चलती चली जाऊँ
अपनी मर्जी से रोऊँ या गाऊँ
तुमको तो पता है ?
आत्मा तक पहुँचने का
दिल है एकमात्र रास्ता
पर ? जो दिल से नहीं जुडा है
उसका मुझसे क्या वास्ता ?
Behtreen Panktiyan....
वर्षा जी एवं मोनिका जी आप दोनों को भी धन्यवाद
ReplyDeleteमन में उठ रही भावों की तरंगों को
ReplyDeleteआपने बहुत सुन्दर ढंग से अपनी रचना में पिरोया है!
बढ़िया रचना!
thanks sanjay ji
ReplyDeleteनिशा जी आपकी कविता अच्छी है बधाई और शुभकामनाएं
ReplyDeletethanks jaykrishna ji.
ReplyDelete