Monday 23 May 2011

फिर क्यों ?


एक तितली थी बडी सयानी
करती रहती थी मनमानी
इच्छा से वो खाती थी
इच्छा से लहराती थी
पता नही था उसे एक दिन
छोड के अपना बाग-बगीचा
छोड के अपना गली-गलीचा
नये बाग में जाना होगा
वहाँ के बंधन,वहाँ की रीतियाँ
सब को उसे अपनाना होगा।

पली थी स्वछंद माहौल में
मिला था जितना प्यार जीवन में
सभी छिन गये उससे ऐसे
बाग उजड गयें हो जैसे
मिल गया उसको नया ठिकाना
दुनियाँ यही जानती है पर
असलियत क्या है ?
ये सिर्फ तितलीरानी ही जानती है
दर्द भरे दिल के गर्द को
अपने अनकहे दर्द को।

उडते-उडते थक जाती है पर
बाग नही आता कैसे सहे
इस व्यथा को जो
सहा नही जाता
धूप में चलते राही के
पीडा की  पहचान कैसे होगी
माँ की ममता पिता का वात्सल्य
बहन का प्यार,भाई के लाड से
वंचित,बिटिया की जान कैसे होगी
दो-दो घर के रहते भी
बेघर होने की पीडा की
बखान कैसे होगी?

माँ,इस घर में भी है
पर, उसमें ममता की कमी है
ममत्व के छाँह की कमी से
उसके आँखों में नमी है
स्नेह पगे मन को पल-पल
रोना पडता है
प्रशंसा के बदले यहाँ
कँटीला ताना मिलता है
पिता का वात्सल्य नही
बर्फ की कठोरता मिलती है
पति का साथ नही
गम बेशुमार मिलता है
बहन का प्यार नही
अवहेलनाओं की बौछार मिलती है
भाई कालाड नही
साजिशों की भरमार होती है
दम घुटता रहता तितली का
दुखों की बरसात होती है।    



कैसे करे अभिव्यक्त दुखों को
और कहे माँ-तेरी बिटिया यहाँ
खून के आँसू रोती है
हर दिन,हर पल अपने
अरमानों को धोती है
कहना चाहे ये बतिया पर
कह नही पाती है कि-
बेटों की तरह बेटियाँ भी
माँ-जाई होती है
फिर क्यों ?फिर क्यों?
बेटियाँ,पराई होती है?

पर जीवन का यही सत्य है
तितलीरानी इसे जानती है
नये घर को, नये सपने को
फिर से सँवारना जानती है
मिलेंगी उसको खुशियाँ
ऐसा उसने ठान लिया है
अपनी कमजोरियों को उसने
ताकत अपनी बनायी है
फिर से स्वछंद बाग में
उडने की चाहत उसने जगायी है।

सच तो,यही है कि
प्रकृति पर अपना जोर नही है
पर-जान ले सारी दुनियाँ
कि- बेटियाँ कोमल है
कमजोर नही है।



















2 comments:

  1. यह तो जहां का नियम है.. और नियम क़ानून तोड़ने वाले कम ही दिखे हैं..
    पर सत्यता खूब है इस कविता में..

    आभार

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