ईंट पत्थर जोड़ रहे हैं
धड़कते दिलों को तोड़ रहे हैं
सुन पा रहे नहीं
अपनों की चित्कार
ऐसे अपनों को
अपना समझने की
हसरत है बेकार ---
झूठा साक्षी बना है सत्य का
निशा उम्मीद की रश्मियाँ बो रही है
रावण -कंसों की दुनियाँ में
मानवीय संवेदनाएं खो रही है ----
महसुस नहीं हो पा रहे जहाँ
माँ-जाई को माँ-जाई के
कातरता भरे सिसकते अरमान
ऐसी निर्ममता तो है केवल
एक कसाई की पहचान ----
ऐसे कसाई के लिए रोना क्यों ?
उम्मीद की किरणें बोना क्यों ?
ऐ दिल.… तूँ चल
तूँ अकेला हीं चल
भीड़ में खोने से अच्छा है
निर्जन में खोना
बेफिक्री की दुनियाँ में
चैन से सोना----
धड़कते दिलों को तोड़ रहे हैं
सुन पा रहे नहीं
अपनों की चित्कार
ऐसे अपनों को
अपना समझने की
हसरत है बेकार ---
झूठा साक्षी बना है सत्य का
निशा उम्मीद की रश्मियाँ बो रही है
रावण -कंसों की दुनियाँ में
मानवीय संवेदनाएं खो रही है ----
महसुस नहीं हो पा रहे जहाँ
माँ-जाई को माँ-जाई के
कातरता भरे सिसकते अरमान
ऐसी निर्ममता तो है केवल
एक कसाई की पहचान ----
ऐसे कसाई के लिए रोना क्यों ?
उम्मीद की किरणें बोना क्यों ?
ऐ दिल.… तूँ चल
तूँ अकेला हीं चल
भीड़ में खोने से अच्छा है
निर्जन में खोना
बेफिक्री की दुनियाँ में
चैन से सोना----
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बुधवार (21-05-2014) को "रविकर का प्रणाम" (चर्चा मंच 1619) पर भी है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
धन्यवाद शास्त्री जी .
Deleteबहुत उम्दा .... मन का हौसला और सकारात्मक सोच कायम रहे
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeletelatest post: रिस्ते !
निर्जन जाओगे, तो वहाँ खुद को पाओगे! यानि निर्जन एक कोरी कल्पना है...बहुत बढ़िया।
ReplyDeleteबिल्कुल सही बात कही आपने सर ......
Deleteवाह, मन को संबल देती रचना।
ReplyDeleteचलना ही जीवन सत्य है .. चाहे एक्ला ही क्यों न ...
ReplyDeleteझूठा साक्षी बना है सत्य का
ReplyDeleteनिशा उम्मीद की रश्मियाँ बो रही है
रावण -कंसों की दुनियाँ में
मानवीय संवेदनाएं खो रही है ----
बढ़िया सामाजिक शब्द चित्र और विभेदन
dhanyavad sanjay jee ..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ..
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