कक्षा में अध्यापक पढा रहे थे
पौधों के क्या-क्या भाग हैं
समझा रहे थे
सबसे नीचे जमीन के अंदर
जड होता है
जो है पौधे का महत्वपूर्ण भाग
ये जमीन से खनिज-लवण लेकर
पौधों को जमीन में दबाये रखता है
उसके अस्तित्व को बचाये रखता है
भले ही आये बडी आँधी या तूफान
खुद उसकी नही है कोई पहचान ?
जड के ऊपर खडा रहता है
दंभी तना ?
जड से सब-कुछ लेकर
जो अभिमानी बना ?
पत्ते - फूल- फल सभी
देन है उस जड का
जिसका ऊपर से होता नही
कोई नामोंनिशान ?
ऐसा लगा ----- मैंने इसे
कहीं और भी देखा है-----
कहाँ ? कहाँ ? कहाँ ?
ध्यान आया ये तो
हर जगह है
हर घर-हर समाज
पूरे संसार मैं
जिससे बनती है
रिश्तों की फूलवारी
वो है सृजन में लिप्त
हर घर की अस्तित्वहीन नारी ?
कैसी विडंबना है जिससे होता सबका अस्तित्व
वो खुद है अस्तित्वहीन ।
वो है सृजन में लिप्त
ReplyDeleteहर घर की अस्तित्वहीन नारी ?
कैसी विडंबना है जिससे होता सबका अस्तित्व
वो खुद है अस्तित्वहीन ।
गहन अभिव्यक्ति ... नारी जो घर को जोड़े रखती है सच ही जड़ के समान है ... मेरे ब्लॉग पर आने के लिए आभार
कृपया टिप्पणी बॉक्स से वर्ड वेरिफिकेशन हटा लें ...टिप्पणीकर्ता को सरलता होगी ...
वर्ड वेरिफिकेशन हटाने के लिए
डैशबोर्ड > सेटिंग्स > कमेंट्स > वर्ड वेरिफिकेशन को नो करें ..सेव करें ..बस हो गया .
अदभुत दर्शन प्रस्तुत किया है आपने.
ReplyDeleteगहन,सार्थक और मार्मिक प्रस्तुति
प्रश्नवाचक चिन्ह के साथ.
सुन्दर प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत आभार.
मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है.
thank both of you.
ReplyDeleteआपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल कल 01-09 - 2011 को यहाँ भी है
ReplyDelete...नयी पुरानी हलचल में आज ... दो पग तेरे , दो पग मेरे
कैसी विडंबना है जिससे होता सबका अस्तित्व
ReplyDeleteवो खुद है अस्तित्वहीन ....
निशा जी पहली बार पढ़ा आपको पर आपके भाव अंकित हो गए ह्रदय पर ...
बहुत सार्थक रचना है ..badhai.
जड के ऊपर खडा रहता है
ReplyDeleteदंभी तना ?
जड से सब-कुछ लेकर
जो अभिमानी बना ?
अच्छी प्रस्तुति....
जब भी हम पेड़ को देखते हैं उसके जड़ों का अस्तित्व स्वतः आत्मसात हो जाता है... इसलिए मुझे लगता है कि जड़ें अदृष्ट कही जा सकती हैं अनस्तित्व नहीं...
नारी के परिप्रेक्ष्य में आपके तुलनात्मक आंकलन में यथार्थबोध समाहित है... सुगढ़ चिंतन के लिए सादर बधाई...
यथार्थ है आपकी इस कविता मे।
ReplyDeleteसादर
बहुत गहन और सुन्दर भावाव्यक्ति।
ReplyDeleteहर घर-हर समाज
ReplyDeleteपूरे संसार मैं
जिससे बनती है
रिश्तों की फूलवारी
वो है सृजन में लिप्त
हर घर की अस्तित्वहीन नारी ?
कैसी विडंबना है जिससे होता सबका अस्तित्व
वो खुद है अस्तित्वहीन ।
बहुत ही सार्थक सामयिक चिंतन युक्त वैज्ञानिक संकेतों के माध्ह्यम से अबिव्यक्त मार्मिक प्रस्तुति ..सादर !!!
मेरी रचना पर अपना राय देने के लिये
ReplyDeleteतहेदिल से आप सबकी शुक्रगुजार हूँ।