Tuesday 20 May 2014

ऐ दिल.… तूँ चल

ईंट पत्थर जोड़ रहे हैं 
धड़कते दिलों को तोड़ रहे हैं 
सुन पा रहे नहीं 
अपनों की चित्कार 
ऐसे अपनों को
 अपना समझने की 
हसरत है बेकार ---

झूठा साक्षी बना है सत्य का 

निशा उम्मीद की रश्मियाँ बो रही है 
रावण -कंसों की दुनियाँ में 
मानवीय संवेदनाएं खो रही है ----

महसुस नहीं हो पा रहे जहाँ 

माँ-जाई को माँ-जाई के 
कातरता भरे सिसकते अरमान 
ऐसी निर्ममता तो है केवल 
एक कसाई की पहचान ----

ऐसे कसाई के लिए रोना क्यों ?
उम्मीद की किरणें बोना क्यों ?

ऐ दिल.… तूँ चल 

तूँ अकेला हीं चल 
भीड़ में खोने से अच्छा है 
निर्जन में खोना
 बेफिक्री की दुनियाँ में 
चैन से सोना----